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स वै पुंसां परो धर्मो यतो भक्तिरधोक्षजे । 
अहैतुक्यप्रतिहता ययाऽत्मा सुप्रसीदति ॥ 
(श्रीमद्भागवत,1.2.6)
” सभी मानवो के लिए परम धर्मं वह है जिससे मनुष्य सर्वव्यापी ईश्वर की प्रेमपूर्ण भक्तिमय सेवा कर सके। और यह भक्तिमय सेवा बिना किसी प्रोत्साहन व बाधा के होनी चाहिए जिससे वह स्वयं संतुष्ट हो।"
धर्म का शाब्दिक अर्थ क्या है? किसी वस्तु का स्वाभाविक गुण जो अपरिवर्तनशील होता है जैसे अग्नि का स्वाभाविक गुण है जलाना| चाहे कोई अनजाने में छुए या कोई बच्चा छुए, अग्नि तो जलायेगी ही | शास्त्रों के अनुसार आत्मा का स्वाभाविक धर्मं क्या है ?  जिस प्रकार भगवान श्री कृष्ण सत-चित-आनन्द (सच्चिदानन्द) हैं, उसी प्रकार आत्मा जो उनका ही अंश है वह भी सत-चित-आनन्द है | आत्मा का धर्म है अपने अंशी अर्थात श्री कृष्ण से जुड़ना और उनकी प्रेममयी सेवा | तभी आत्मा शास्वत आनन्द का उपभोग 
कर सकती है |
महाराज परीक्षित जो एक महा-भागवत थे तथा जिनकी रक्षा गर्भ में भगवान श्री कृष्ण ने स्वयं की थी, कलियुग के प्रभाव में आकर उन्होंने एक मरे हए सांप को ऋषि के गले में डाल दिया | ऋषि-पुत्र ने उन्हें श्राप दिया कि आजसे सातवे दिन तक्षक सर्प के काटने से वे मर जायेंगे | यह सुनते ही परीक्षित ने समस्त राजपाट, परिवार तथा अन्य सुख सुविधाएँ मल के समान त्याग दी तथा आमरण अनशन का प्रण लेकर गंगा किनारे बैठ गए | समस्त महान ऋषि उनका प्रण सुनकर उन्हें आशीर्वाद देने वहाँ उपस्थित हए |
महाराज परीक्षित ने पहले समस्त ऋषियों तथा बाद में श्री शुकदेव गोस्वामी से पूछा: सभी परिस्थियों में हर एक प्राणी व विशेष रूप से जो तुरंत मरने वाला हो, उस प्राणी के कर्तव्य के विषय में बतलाने को कहा (SB.1.19.24)| श्री शुकदेव गोस्वामी ने कहा: हे राजन, प्रत्येक मनुष्य सर्वत्र तथा सर्वदा भगवान के नाम का श्रवण करे, गुणगान (कीर्तन) करे तथा स्मरण करे (SB.2.2.36) | यही सनातन या भागवत धर्म है | धर्म के जिन सिद्धान्तों से पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान को वास्तव में समझा जा सकता है, वह भागवत धर्म कहलाता है (SB.7.10.45) | SB.1.2.28, के अनुसार वासुदेव (कृष्ण) की प्रेमपूर्ण सेवा करना ही धर्म है और वे ही जीवन के परम लक्ष्य हैं |  
चैतन्य महाप्रभु ने कहा है: इस कलियुग में भगवन्नाम के कीर्तन से बढकर अन्य कोई धर्म नहीं है | कीर्तनीय: सदा हरि: अर्थात भगवान कृष्ण के नाम का सदा कीर्तन करो | श्री शुकदेव गोस्वामी का कहना कि, प्रत्येक मनुष्य सर्वत्र तथा सर्वदा भगवान के नाम का गुणगान(कीर्तन) करे या चैतन्य महाप्रभु का यह कहना कि कीर्तनीय: सदा हरि: का एक ही अर्थ है और कलियुग के लिए हमारा या आत्मा का यही धर्म है और यही भागवत धर्म है, यही मनुष्य का वास्तविक धर्म है| और जब हम इस धर्म का पालन करना शुरू कर देते हैं तो स्वर्ग-नरक, सुख-दुख, या मृत्यु भी हमारे लिए बेमानी हो जाते हैं | 

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Comments

  • Jai Sri Bhagavan Shri Krishna!

    For your ease of reference...

    SB 1.2.6The supreme occupation [dharma] for all humanity is that by which men can attain to loving devotional service unto the transcendent Lord. Such devotional service must be unmotivated and uninterrupted to completely satisfy the self.

    ...

    SB 1.19.24O trustworthy brāhmaṇas, I now ask you about my immediate duty. Please, after proper deliberation, tell me of the unalloyed duty of everyone in all circumstances, and specifically of those who are just about to die.

    ... 

    SB 2.2.36O King, it is therefore essential that every human being hear about, glorify and remember the Supreme Lord, the Personality of Godhead, always and everywhere.
    ...
    SB 7.10.45The principles of religion by which one can actually understand the Supreme Personality of Godhead are called bhāgavata-dharma. In this narration, therefore, which deals with these principles, actual transcendence is properly described.
    ...
    SB 1.2.28-29In the revealed scriptures, the ultimate object of knowledge is Śrī Kṛṣṇa, the Personality of Godhead. The purpose of performing sacrifice is to please Him. Yoga is for realizing Him. All fruitive activities are ultimately rewarded by Him only. He is supreme knowledge, and all severe austerities are performed to know Him. Religion [dharma] is rendering loving service unto Him. He is the supreme goal of life.
    ....
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