मूल:
सत्संगत्वे निस्संगत्व, निस्संगत्वे निर्मोहत्वम्।
निर्मोहत्वे निश्चलचित्तं, निश्चलचित्ते जीवन्मुक्तिः॥
भज गोविन्दं भज गोविन्दं, भज गोविन्दं मूढ़मते।
हिन्दी:
सत्संगति में है संग का क्षय, संग-क्षय से सर्व-मोह का लय,
मोह-विलय में अचलचित्तता, अचल-चित्त जब, तब मुक्ति अमृतमय।
भज गोविन्दं भज गोविन्दं, गोविन्दं भज मूढ़मते।
इस श्लोक में श्री शंकराचार्य सज्जनों के समीप रहकर अपने मन से आशा-पाशों को हटाने का प्रयत्न करने की बात करते हैं। सत्संगति अपार शक्तिदायक होती है, यह कौन नहीं जानता है। मन पर सत्संगति का प्रभाव उपदेश से भी ज्यादा होता है। संतो के साथ रहने से मन में शान्ति पैदा होती है और चित्त स्थिर होता है। ज्यों-ज्यों इच्छाएँ और आसक्तियाँ कम होती जाएँगी, त्यों-त्यों मोह भी क्षीण होता जाएगा।
मोह के वश में होने की वजह से मनुष्य को अच्छे-बुरे की पहचान नहीं हो पाती। सच को झूठ और झूठ को सच सच समझना हीं तो मोह है। आशा-पाशों के कम होने से मोह भी कम हो जाता है। मोह जब पूर्णतः नष्ट हो जाता है तब मनुष्य का चित्त पवित्र, निश्चल और निर्विकल्प हो जाता है। पवित्रता हीं ईश्वर का स्वरूप है। इसी उँची स्थिति की प्राप्ति ही मुक्ति है।
सत्संग की महिमा बहुत है और यह सत्संग भी आसानी से प्राप्त नहीं होता। जैसे मनुष्य जीवन हमें कई सारी योनियों में घुमते रहने के बाद ईश्वर की कृपा से नसीब होता है वैसे ही संतों का संग भी भगवान की कृपा से हीं हमें मिलता है - "बिनु हरिकृपा मिलहिं नहीं संता" (रामचरितमानस, ५.६.२)। हमें इसका भरपूर लाभ उठाना चाहिए। सत्संग से विरक्ति और निर्मोह की अवस्था प्राप्त होती है। कुसंगति से इसके उलटा परिणाम प्राप्त होता है। यदि हमारा ध्येय मुक्ति है तो हमें सदा अच्छे लोगों का साथ करना चाहिए। सदा सचेत रहना चाहिए, न जाने कब ईश्वर हमारे सामने किसी संत को ला दें। नास्तिकों का साथ हमें छोड़ना चाहिए। इस मामले में भी सजगता जरुरी है। पर नास्तिकों का साथ छोड़ने का मतलब यह नहीं होना चाहिए कि हम उनकी निन्दा करने लगें। हमें तो पर्मात्मा से प्रार्थना करनी चाहिए कि वे नास्तिकों पर भी अपनी दया दृटि रखें। हमारे उपनिषद में आता है - "सर्वे सुखिनः संतु, सर्वे संतु निरामया.....", ऐसा नहीं कि इसमें केवल भक्तों के लिए, या आस्तिकों के लिए या किसी जाति, धर्म, वर्ग विषेश के लिए प्रार्थना की गई है। हमारी संस्कृति हमें सिखाती है कि हम संतों का साथ करें, नास्तिकों से दूर रहें फ़िर भी हमें प्रार्थना सब की भलाए के लिए करनी चाहिए।
अगर हमारे मन में भक्ति-भाव जगे तो इसे प्रभु का वत्सल्य समझकर प्रसन्न होना चाहिए, और उनके प्रति अपनी कॄतज्ञता प्रकट करने से नहीं हिचकना चाहिए। नाम-जप इसी कृतज्ञता को प्रकट करने की एक सरल विधि है, सो भज गोविन्दं...।
हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे।
हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥
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